Monday, 26 June 2017

ग़ाज़ीपुर में गौतम बुद्ध सम्राट अशोक तथा बौद्ध स्थल




ग़ाज़ीपुर में गौतम बुद्ध

 सम्राट अशोक तथा बौद्ध स्थल
अपनी बात 


उत्तरं यत्स मुदस्य हिमाद्रेश्चव दक्षिण्न।
वर्ष तद् भारत नामा भारती यत्र सन्तति।।
(विष्णु पुराण : 31-1)
अर्थातसमुद्र के उत्तर में, हिमालय के दक्षिण में जो देश है, वह भारत नाम का खण्ड कहलाता है और जहाँ के लोग भारत की संतान कहलाते हैं।
मुझे गर्व है कि उसी विविधता में एकता का उद्घोष वाले भारत (अर्थात भृ प्रकाश, रतृलगातार यानी लगातार प्रकाश फैलाने वाला) का मैं बेटा हूँ और ग़ाज़ीपुर मेरी कर्मभूमि है, जिसकी आग़ोश में मैंने आँखें खोलीं। खेला और बड़ा हुआ।
               At Mason Dih ( Near Aurihar )
मेरे भारत का उदय और विकास ऐसे वक़्त में हुआ था जब दुनिया के अनेक देश कई दृष्टियों से अनुन्नत और असभ्य थे। उनमें भारत जैसी योजनाबद्ध, व्यवस्थित और सुगठित सामाजिक संस्थाएँ नहीं थीं। ख़ुशी की बात है कि भारतीय सामाजिक संस्थाएँ जो अत्यंत प्राचीनकाल में थीं, वे आज भी हैं। उनके आधार-तत्व में किसी प्रकार का मूलभूत परिवर्तन नहीं आया है। उनकी अक्षुण्णता पूर्ववत बनी हुई है यद्यपि इस बीच समय-समय पर अनेकानेक विदेशियों (पारसी, यूनानी, शक, हूण, पल्हव, तुर्क आदि) के अभियान हुए, जिन्होंने देश को बारंबार पदाक्रांत और अशांत किया तथा अपना शासन स्थापित किया; इससे यहाँ की सामाजिक संस्थाओं को गहरे आघात पहुँचे, परन्तु उन संस्थानों ने दृढ़तापूर्वक अपना स्थायित्व बनाये रखा। यहाँ की जड़ें इतनी गहरी थीं कि उनको उखाड़ पाना नामुमकिन हो गया था। वस्तुत भारतीय संस्कृति की यह मूलभूत विशेषता थी कि उसने अपने को अक्षुण्ण और अटूट बनाये रखा। विभिन्न शताब्दियों में होने वाले परिवर्तन और परिवर्धन हिन्दुस्तानी संस्कृति के अंग बन गये, परन्तु भारतीय सामाजिक संस्थाओं का आधार-तत्व अपरिवर्तित ही रहा। जबकि ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण मिस्र, बेबीलोन, निनवे, सुमेर, रोम, ग्रीस आदि विश्व के विख्यात देशों की उन्नतशील सभ्यताएँ कराल काल के गाल में समाहित हो गयीं तथा उनका सांस्कृतिक वैभव और ऐश्वर्य नष्ट हो गया। फलत उक्त देशों की आधुनिक सभ्यता और प्राचीन सभ्यता में बहुत अंतर है, जो उनके आज के समाज में मेल नहीं खाती। परन्तु इसके विपरीत भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आधार-तत्व वही है जो प्राचीनकाल में था। शायर डॉ. इक़बाल का कथन है :
यूनान  मिस्ररोमा  सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है ब़ाकी नामनिशाँ हमारा।
कुछ  बात  है  कि  हस्ती  मिटती नहीं हमारी
सदियों  रहा  है  दुश्मन  दौरज़माँ हमारा।।
इस तरह भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है, जिसमें अनेक संस्कृतियों का योगदान रहा है, जो यहाँ अस्थायी अथवा स्थायी रूप से बसने आयीं। परिणामस्वरूप हमारी संस्कृति विभिन्न पद्धतियों के मिले-जुले रूप में विकसित हुई। यह केवल व्यापक एवं विविधतामयी है अपितु विशिष्ट भी है, जो शाश्वत मूल्यों से अनुप्राणित है। उसी के फलस्वरूप इसका प्रभाव आज भी ग़ाज़ीपुर के लोगों पर है। डॉ. राही मासूम रज़ा ने क्या ख़ूब बात कही है :
कैसी बस्ती है मेरा शहर बताऊँ कैसे
फिर भी दीवानों का यह शहर है सजदे की जगह
कैसे उठ जायेगा इस शहर से ख़ुशबू का चलन
सुब्ह फूलों के प्यालों में पिलाएगी शराब
शाम शर्माएगी, जैसे कोई चौथी की दुल्हन
बारेख़ुशबू से लचक जायेगी हर शाख़ेबदन
मेरे शहर गुलाबों के वतन मेरे चमन।
हो सकता है कि इक़बाल और राही ने सच कहा हो, उनका नज़रिया अपना है, लेकिन जब मैं अपने शहर की उदास बस्तियों से होकर गुज़रा, तो अवशेषों को देखकर महसूस हुआ कि कभी यह जीवन्त जिला रहा होगा
एक तहज़ीब थी छुपी यहाँ
शहर को खोदा तो तारीख के टुकड़े मिले
ढेरो पत्थराए हुए वक्त के पन्नों को उलट कर देखा
एक भूली हुई तहज़ीब के पुर्ज़े से बिछे थे हरसू
वही मटके, वही हांडी, वही टूटे हुए प्याले
होंठ टूटे हुए, लटकी हुई मिट्टी की ज़बान हरसू
भूख उस वक्त भी थी, प्यास भी थी, पेट भी था
हुक्मरानों के महल, उनकी बुर्जियाँ, उनके महल, सिक्के
बेड़ियाँ पत्थरों की, फौलादी पैरों के कड़े
और गुलामों को जहाँ बाँध के रखते थे
वह पिंजरे भी बहुत से निकले
एक तहज़ीब यहाँ दफन है और उसके करीब
एक तहज़ीब रवाँ है
जो मेरे वक्त की है
मेरी तहज़ीब ने कितनी तरक्की की है।।
मुझे लगता है कि जो स्वरूप हमारा आज है वह अनायास ही नहीं है। इसमें एक क्रमिकता है और यही क्रमिकता हमें अतीत पर गर्व करने के लायक बनाती है। बीता हुआ कल तमाम संगतियों-विसंगतियों के बावजूद रोचक, समर्थक और तार्किक प्रतीत होता है। किन्तु यह रोचकता यूँ ही निर्मित नहीं होती। अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को सहेजने वाले अपनी स्वैच्छिक पड़ताल का संपूर्ण राष्ट्र गौरव के लिए करें, तभी हम प्राचीनतम सभ्यता होने का मर्म यहाँ के सामने रख पायेंगे। वस्तुत अपने अतीत को जानना अपने भविष्य को तलाशना जैसा है।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यदि ग़ाज़ीपुर के इतिहास तथा गौतम बुद्ध एवं सम्राट अशोक की बात की जाये तो सर्वप्रथम स्रोतों की चर्चा आवश्यक है। यद्यपि इन स्रोतों में अनेक तत्व सम्मिलित हैंकिन्तु व्यवस्थित रूप में इनका निम्नलिखित प्रदर्शन किया जा सकता है
ऐतिहासिक स्रोत

साहित्यिक साक्ष्य      पुरातात्विक साक्ष्य    विदेशी यात्रियों     प्राचीन भारतीय                                                          के वृत्तांत                             इतिहास के                                                                                                    आधुनिक लेखक
ब्राह्मण ग्रंथ  नास्तिक ग्रंथ  लौकिक ग्रंथ                    यूनानी चीनी          अरबी
                                अभिलेख मुद्रा         स्मारक या भवन
वैदिक साहित्य        अवैदिक साहित्य
उपरोक्त ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर मैं जो गौतम बुद्ध से लेकर सम्राट अशोक तथा यहाँ की बौद्ध बस्तियों से अपना संबंध जोड़ने जा रहा हूँ, मेरा उनके प्रति मात्र प्रेम है। एक लगाव है। अतीत का चंदन है। इन संदर्भों एवं स्रोतों के आधार पर तथ्यों एवं साक्ष्यों की छानबीन करना, बेशक मेरे लिए अत्यंत दुरूह कार्य था। लेकिन मैंने इस ओर अपेक्षित प्रयास किया और इनमें कुछ कामयाबियाँ भी मिलीं। मैंने बौद्ध युग से संबंधित शिल्प तथ्यों, वस्तु भग्नावशेषों, स्मारक अवशेषों, भवन अवशेषों, प्राचीन मुद्राओं, जीवाश्मों, प्राचीन पुस्तकों, पाण्डुलिपियों, शिलालेखों, मंदिरों, मठों, चैत्यों, विहारों, मूर्तियों, तामपत्रों, यात्रा विवरणों, पुरातत्ववेत्ताओं की उत्खनन रिपोर्टों, संग्रहालयों, ऐतिहासिक घटनाओं के अभिलेखों का सिलसिलेवार अध्ययन किया है। उन्हीं से मुझे पता चला कि इस जनपद में गौतम बुद्ध का तथा सम्राट अशोक का अपने धर्मगुरु उपगुप्त के साथ आना हुआ था।
                       Mason Dih ( Ashokan Time Well )
ग़ाज़ीपुर यद्यपि कि छोटा नगर है, लेकिन भारतीय इतिहास में अपनी पौराणिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में नामचीन नगरों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। सारनाथ मगध के सानिध्य में होने के कारण गौतम बुद्ध आते-जाते जनपदवासियों को प्रेम, मानवता तथा अहिंसा का उपदेश तो दिया था, उनकी मान्यता थी कि कोरे कर्मकाण्ड और यज्ञादि में किसी मनुष्य की आत्मोन्नति नहीं हो सकती और जब तक मनुष्य की आत्मा जाग्रह नहीं होती, वह आत्मत्व को समझकर सब प्राणियों में एक ही परमात्मा के दर्शन नहीं करने लगता, तब तक मुक्ति का अधिकारी नहीं बन सकता। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जब गौतम बुद्ध आगे बढ़े, उन्होंने यहाँ के समाज की कायापलट ही कर दी। उनके देशनाओं, सम्राट अशोक के प्रयासों तथा बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार से हमारे क्षेत्र को ऐतिहासिक अमरत्व प्रदान हुआ। हजारों साल व्यतीत हो जाने के बाद भी ग़ाज़ीपुर बौद्धधर्म के अनमोल धरोहरों से सम्पन्न एवं समृद्ध रहा। यह दुर्भाग्य की बात है कि समयकाल के चक्र में ऐतिहासिक महत्व के अनेक धरोहरों के अस्तित्व को सुरक्षित रख सका। ग़ाज़ीपुर में आज इधर-उधर बौद्धयुगीन कुछ अवशेष मिले हैं, मगर वहाँ के कुछ प्रभावशाली स्थानीय लोगों का इन ऐतिहासिक धरोहरों एवं ईमारतों के महत्व को मिटियामेल कर अधिकतर पर कब्जा है। मेरे लिए यह दुख की बात है।
ग़ाज़ीपुर के औड़िहार, मसोनडीह, जौहरगंज, बैरंत, बुद्धिपुर, शादियाबाद, बहरियाबाद, मखदूमपुर, सैदपुर, भितरी, जलालाबाद, दुल्लहपुर, कासिमाबाद, जहूराबाद, करीमुद्दीनपुर, वीरपुर, भरौली, जमानिया, दिलदारनगर, शाहपुर उर्फ लटिया, बारा, बघरी, महाइच, पहलादपुर आदि क्षेत्रों में अनेक ऊँचे कोट एवं खण्डहर हैं, जिनमें बौद्ध युग और उसके बाद के युग के कलावशेष होने के अनुमान लगाये जाते हैं। परन्तु इस दिशा में अभी तक कोई ठोस उल्लेखनीय सर्वेक्षण या उत्खनन कार्यवाही नहीं हो पायी है। यद्यपि जिन-जिन स्थानों पर जनपदवासियों ने अपने हित या स्वयं के प्रयोग के लिए जमीनों की जो खुदाइयाँ की हैं या कराई हैं, उन्हें वहाँ से असंख्य बौद्ध युग के अवशेषों में टूटे बर्तन, जेवरात, सिक्के, खंडित-विखंडित मूर्तियाँ, प्रस्तर स्तंभों के टुकड़े आदि प्राप्त होते रहे हैं। इस पुस्तक में जगह-जगह भग्नावशेष, उत्खनन, अन्वेषण, अवशेष, पुरावशेष, टेरीकोटा आदि का प्रयोग हुआ है। पहले इन्हें समझ लें ताकि आपको भी आसानी हो सके।
भग्नावशेष- किसी टूटे-फूटे मकान या उजाड़ बस्ती का बचा हुआ अंश या खण्डहर भग्नावशेष कहलाता है। किसी प्राचीन नगर/भवन/शहर आदि के नष्ट होने पर बचे हुए उसके टूटे-फूटे भाग ही भग्नावशेष होते हैं। किसी टूटे हुए पदार्थ के बचे हुए टुकड़े/अवशिष्ट खंडित भाग/ध्वंसावशेष भी भग्नावशेष कहलाते हैं।
अन्वेषण- अन्वेषण का अर्थ है खोजना और ढूँढ़ना। अन्वेषण पुरातत्व विभाग का ही एक अंग है। अन्वेषण करने में ऐसी अज्ञात अथवा दूर की बातों, वस्तुओं, स्थानों आदि का पता लगाया जाता है जो अब तक सामने आयी हो।
उत्खननउत्खनन को हिन्दी भाषा में खोदाई और अंग्रेजी में xिंम्aन्atग्दह कहा जाता है। आजकल मुख्य रूप से जमीन खोदने की वह क्रिया है जो गहराई में दबे हुए प्राचीन अवशेषों का पता लगाने के लिए की जाती है, उसे उत्खनन कहा जाता है।
अवशेष- अवशेष को अंग्रेजी में Rात्ग्म्s कहते हैं। जो कुछ उपभोग, नाश, विश्लेषण, भय आदि के उपरांत बचा हो। वह धन या सम्पत्ति जो किसी के मरने उपरांत बचा हो। वह धन या सम्पत्ति जो किसी के मरने के उपरांत बची हो, अवशेष कही जाती है। टूटे हुए खण्डहर या भग्नावशेष भी अवशेष कहे जाते हैं।
पुरावशेष- पुरावशेष को अंग्रेजी में Aहूग्ल्गि्tगे कहते हैं। बहुत प्राचीनकाल की चीज़ों के टूटे-फूटे या बचे-खुचे अंश या अवशेष जिनके आधार पर उस काल की सभ्यता, इतिहास आदि के संबंध में जानकारी प्राप्त की जाती है, पुरावशेष कहलाते हैं।
टेरीकोटा- टेरीकोटा शब्द अर्थात पकी हुई मिट्टी। इसका शाब्दिक अर्थ आग में पकाई गयी किसी भी प्रकार की मिट्टी है। यद्यपि साधारण प्रयोग में इसका अर्थ किसी वस्तु में लगाया जाता है, जैसे बर्तन, प्रतिमा या कोई संरचना, जिन्हें अपरिष्कृत और रंधित मिट्टी से बनाया जाता है। पकाने के बाद इनका रंग हल्का गेरुआ या लाल हो जाता है। इनमें चमक नहीं होती। टेरीकोटा की अधिकांश वस्तुएँ सस्ती, बहुपयोगी तथा टिकाऊ होने के कारण लोकप्रिय है।
मैं 5 अप्रैल 2015 को अपने परम मित्र और सहपाठी हन्टर ग़ाज़ीपुरी (टाउन हाल) तथा ड्राईवर मुहम्मद राशिद (ज़ेर किला) के साथ सैदपुर, भितरी, जौहरगंज, मसोनडीह, औड़िहार गाँव आदि स्थानों के टीलों एवं खण्डहरों को देखने के लिए गया तो वहाँ के अतीत की यादों की कुछ झलकियाँ स्थानीय वयोवृद्ध लोगों की स्मृतियों में आज भी सुरक्षित पायीं जैसे छोटे-छोटे स्थानों के प्राचीन नाम, मान्यताएँ, लोकोक्तियाँ, वहाँ का इतिहास आदि। उन्हीं लोगों के साथ अधिकांश ऐतिहासिक स्थलों पर गया। अधिकतर वे उपेक्षित एवं खुले पड़े हैं। ऐसे निर्जन टीलों एवं खण्डहरों पर गाँव वालों को जिसमें पुरुष, महिलाएँ, बच्चे-बच्चियाँ थीं, जिन्हें वहाँ दुबके, कुछ सिकुड़े, कुछ सिर झुकाये, कुछ मुँह छुपाये शौच का मज़ा लेते भी देखा। उसके कारण हमें वहाँ चलने-फिरने और चढ़ने-उतरने में परेशानी उठानी पड़ी। जब मैंने 2000 . में इस पुस्तक को लिखने का मन बनाया था, तो उस समय एक बड़ा कदम यह उठाया था कि स्थानीय मास्टर अलाउद्दीन साहब के साथ गाँव भितरी-स्तंभ से पैदल चलकर गांगी नदी के दोनों तटों की तरफ जाकर उन्हें निहारते हुए, अवशेषों का निरीक्षण करते हुए, ऐतिहासिक स्मारकों को देखते हुए, अनेक छोटी-बड़ी बस्तियों से होते हुए मौज़ा चाँड़ी, जौहरगंज, मसोनडीह, मल्लीपुर मसोन, चकियो मसोन, नवादा मसोन, मढ़िया होते हुए औड़िहार गाँव में निकला था। इन स्थानों पर मैंने गाँव वालों के घरों में तथा उनके आस-पास पेड़ों के नीचे प्रस्तर और काली मिट्टी से निर्मित छोटी-बड़ी अनेक टूटी-फूटी मूर्तियाँ, भवनों के खम्भे, सीलिंग पर उकेरी गयी कलाकृतियों के अवशेषों को देखा। वहाँ ऐसे बहुमूल्य कलावशेषों के बेचने-खरीदने जाने की बात भी मेरे संज्ञान में आयी, जो मेरे लिए दुखदायी बात थी। जाने कितने ऐसी हमारे जनपद की अनमोल और बेमोल धरोहरों को बेचा जा चुका है। पुरातात्त्विक विभाग के अलावा स्थानीय सरकारी प्रशासन को विशेष तौर पर इस ओर ध्यान देना चाहिए ताकि हमारे जनपद की ऐतिहासिक धरोहर सुरक्षित रह पाये।
ह्वेन साँग की यात्रा विवरण से ही मुझे मालूम हुआ कि गौतम बुद्ध ग़ाज़ीपुर के पश्चिमी तथा पूर्वी क्षेत्र में रुके थे और यहाँ की बस्तियों में घूमे थे। उनके व्यक्तित्व में करिश्माई एवं लवणीय बात तो अवश्य रही होगी कि स्थानीय लोग उनकी ओर आकृष्ट हुए और उनमें खिंचाव इतना था कि लोग खिंचते चले आये। उनके देशनाओं में कुछ विशेषताएँ तो रही ही होंगी? ऐसे प्रश्न कई बार मन में उठे कि वह कारण क्या थे?
सबसे पहले उनकी भाषा बहुत सरल थी और आसान भी जो सबके समझ में सके। इसके अलावा वह कहते थे कि मनुष्य जिन दुखों से पीड़ित है, उनमें बहुत हिस्सा ऐसे दुखों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, गलत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया है। उन दुखों का निदान अपने सही ज्ञान द्वारा ही संभव है। किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। अत सत्य की खोज दु:खमोक्ष के लिए परमावश्यक है। खोज में अज्ञात सत्य ही की जा सकती है। यदि सत्य किसी शास्त्र, उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज नहीं। अत बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परंपरा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बाँधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी संदेह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो। यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो अन्यथा छोड़ दो। यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्त मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत एवं हृदय को सीधे स्पर्श करता था।
बुद्ध विनयो जनों के विचार, रुचि, अध्याश्य, स्वभाव, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप देशना दिया करते थे। उनकी जो विशेषता थी कि वे सन्मार्ग का संपादन करते हैं कि वरदान या ऋद्धि के बल से जैसे कि शिव या विष्णु आदि के बारे में अनेक कथाएँ पुराणों में प्रचलित हैं।
मेरी समझ में थोड़ी बहुत बात जो आयी, वह यही कि गौतम बुद्ध जीव और जगत के प्रति व्यवहारिक दृष्टिकोण रखते थे। उनके विभिन्न सन्देशों तथा देशनाओं में उनके जीवन-दर्शन की स्पष्ट झलक मिलती है। जिस समय उनका जन्म हुआ था, उस समय मानव तत्त्वशास्त्र की समस्याओं को सुलझाने में निमग्न था। प्रत्येक व्यक्ति, जगत, ईश्वर जैसे विषयों के चिंतन में डूबा हुआ था। उस वक्त जितने चिंतक, विचारक एवं दार्शनिक उतने ही मत थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि लोगों का नैतिक जीवन निप्राण हो रहा था। लोग जीवन के कर्तव्यों को भूल रहे थे। वे संसार में रहकर सांसारिक कर्मों से दूर थे। उस समय एक ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता थी जो लोगों को नैतिक जीवन की समस्याओं के प्रति जागरूक बनाने में सहायक हो। बुद्ध इस माँग की पूर्ति करने में पूर्ण रूप से सफल हुए। इसीलिए लोग उनकी ओर तेज़ी से झुके। लोगों ने उन्हें पसंद किया।
मेरा भी मानना यही है कि बौद्ध धर्म के पनपने का मुख्य कारण यही था और दूसरा उस समय के प्रचलित धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रति लोगों का असंतोष भी था। इसी वजह से ग़ाज़ीपुर में बौद्ध धर्म और बौद्ध दर्शन पनप पाया और उसका विकास संभव हो पाया। एक और कारण वह बौद्ध भिक्षु का धर्म-प्रचार के लिए आना। उस समय की लोक भाषा पालि ही थी, वे इसी में अपनी बात स्थानीय लोगों में रखते थे। इससे जनसाधारण को उनके विचार समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई। एक बात और जो शिक्षा-केन्द्र थे, वहाँ से अनेक विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे अपने गाँवों में जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते। बौद्ध प्रचारकों के अनथक परीश्रम ने भी इस धर्म को लोकप्रिय बनाया। स्थान-स्थान पर घूमकर उन्होंने अपना संदेश सभी प्रकार के लोगों को सुनाया और मध्यम मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। भिक्षुओं के पवित्र जीवन और शुद्ध आचरण से लोग बहुत प्रभावित हुए। डॉ. वी. . स्मिथ के अनुसार, ‘‘भिक्षुओं और भिक्षुणियों का सुसंगठित संघ इस धर्म के हाथ में एक प्रभावशाली शस्त्र था।’’
गौतम बुद्ध के बारे में कुछ जानकारियाँ जुटाने हेतु जब मैं ग़ाज़ीपुर की बौद्ध आबादियों तथा उनके विचारकों के बीच गया, तो उनसे अनेक बिन्दुओं पर बातें हुईं। मुझे भी महात्मा बुद्ध की जगहभगवान बुद्धके लिए टोकते। इससे पूर्व इतनी बारीकी से मैंने कभी सोचा भी नहीं था। दरअसल, कोर्स की पुस्तकों में महात्मा बुद्ध ही पढ़ा था। इस बिन्दु पर थोड़ा मैं चौंका भी। कुछ स्थानीय लोगों के हाथों में जो बुद्ध की खंडित मूर्तियाँ देखीं, उन्हें वहभगवान बुद्ध, ‘तथागतया फिरबुद्ध देवसे ही संबोधित कर रहे थे। बड़ी अजीब असमंजस की स्थिति में था। जब जानकारी हुई तो मालूम हुआ कि बुद्ध के अनेक नाम हैं, जैसे विनायक, सुगत, धर्मराज, तथागत, भगवत, समन्तभद, मारजित, मुनि, लोकाजित, जिन, षडभिज्ञ, दशबल, अदवयवादिन, सर्वज्ञ, श्रीधन, शास्तृ, मुनीन्द्र, गौतम बुद्ध, आदि।
पालि भाषा मेंभगवानशब्द का अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न है, जिन अर्थों में यह शब्द आजकल व्याख्यायित किया जाता है। पालि मेंभगवानअथवाभगवनदो शब्दों से बना हैभग - वान। पालि मेंभगमायने होता हैभंग करना, तोड़ना, भाग करना, विभाजन, विश्लेषण करना, उपलब्धि को बाँटना आदि औरवानका अर्थ धारणकर्ता, तृष्णा आदि। मानी जिसने अपनी तृष्णाओं को भंग कर दिया वहभगवानहै।
पालि ग्रंथ में बुद्ध के लिए प्रयुक्तभगवानअथवाभगवाशब्द को परिभाषित करते हुए बहुत से उदाहरण हैं
भग्गरागोति भगवाजिसने राग भान कर लिया (वह) भगवान।
भग्गदोसिति भगवाजिसने द्वेष भग्न कर लिया (वह) भगवान।
भग्ग्योहिति भगवा, भग्गमानोति भगव, भग्ग किले सोति भगव, भवानं अंतकरोति भगवा, भग्गकण्डकोति भगवा......’
(जिसने) मोहभंग कर लिया, अभिमान नष्ट कर लिया, कलेश भग्न कर लिए, भव संस्कारों का अंत कर लिया, कंटक भग्न कर लिए (वह) भगवान।
इस प्रकार के बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जिनमेंभगवानशब्द को परिभाषित किया जाता है।
भावितकायो भावित सीलो भावितचित्तो भावित पञ्ञोति
ङभगवा अर्थात काया, शील, चित्त और प्रज्ञा को जिसने साध लिया, भावित कर लिया (वह) भगवान।
भगवान शब्द गौरव गरिमा का भी पर्याय ग़ाज़ीपुर के बौद्ध मतावलम्बियों के बीच है– ‘भगवति गारवाधिवचन
भगवान, सौ भाग्यवान शब्द की भगवान शब्द से व्युत्पन्न है। अपनी उपलब्धि में लोगों को भागीदार बनाने के अर्थों में भी बुद्ध के साथ भगवान शब्द प्रयोग किया जाता है। उच्चतर उपलब्धियों में भी भागीदार होने के अर्थ में भी भगवान शब्द समानार्थी है
‘‘भावी वा भगवा चतुन्नं झाननं चतुन्नं अप्पमञ्ञानं चतुन्नं अरूपसमापत्ति नन्ति भगवा’’
(जो) चार ध्यान, चार अप्रमाण्य ध्यान, चार आरूप ध्यान सम्पत्तियों के भागीदार हैं (वह) भगवान हैं।
ये सभी उदाहरण भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण सेभगवानशब्द को व्याख्यादित परिभाषित करते हैं जो किभगवानशब्द के आज को प्रचलित अर्थों से बिल्कुल भिन्न अर्थ रखते हैं।
एक बात और है, ‘महात्मा बुद्धकी जगहभगवान बुद्धयातथागतके अलावा बौद्ध धर्म के स्थान परधम्मशब्द के उच्चारण किये जाने पर भी मैं चौंक उठता था। तहसील जमानियाँ के शाहपुर उर्फ लटिया ग्राम में ग़ाज़ीपुर के बौद्ध मतावलम्बी लोग हर वर्षलटिया महोत्सवमनाते हैं। वहाँ मुझे बतौर मुख्य अतिथि 2005 तथा 2009 में जाने का अवसर मिला। लगभग एक लाख से लेकर सवा लाख के करीब यहाँ बौद्ध उपासक आते हैं। वहाँ के अधिकतर वक्ताओं एवं चिंतकों के संबोधन मेंधर्मकी जगहधम्मपर ज़ोर था। जबकि मैंने अपने विश्वविद्यालय के दिनों में बुद्ध और अशोक से संबंधित बौद्ध धर्म ही लिखा पाया था, इस कारण यहाँ थोड़ा अटपटा सा लगा, मुझे अजीब सा लगा। मालूम हुआ कि
‘‘नहि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो।''
``बैर से बैर शांत नहीं होता। अबैर से बैर शान्त होता है यही सनातन नियम है।’’ – यह बुद्ध का धम्म है।इमास मिम इदं होति, इमासमिम असति इदं होतिअर्थात यह होने से यह होगा यह नहीं होने से यह भी नहीं होगा। बुद्ध ने प्राय धम्म के लिए अपने देशनाओं में कहा है– ‘एस धम्मो सन्तन्तनो’ – यह भी सनातन धर्म है। अर्थात जो सनातन सत्य है, सनातन नियम है, बुद्ध ने उन्हें धम्म कहा है।
अगर देखा जाए तो सम्राट अशोक के अभिलेखों मेंधम्मशब्द की पुनरावृत्ति प्राय बार-बार हुई है।धम्मसंस्कृत के धर्म शब्द का पालि पर्यायवाची है।धम्मका अर्थ भी धर्म होता है। पर इसका अभिप्राय उसके व्यक्तिगत धर्मबौद्ध धर्म से नहीं है, क्योंकि उसने बौद्ध धर्म के लिएधम्मशब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। इसके लिए सद्धर्म तथा संघ शब्द का प्रयोग है। बौद्ध धर्म के विकास के संदर्भ में भी धम्म की चर्चा नहीं करता। इसकी व्याख्या में कहता है किइसके द्वारा अपने धर्म की वृद्धि हो और धर्म की दीप्ति हो’ (शि. ले. 12) अशोक ने नैतिक आदर्शों कोधम्मनाम से ही संबोधित किया है। वे नैतिक सिद्धांत उस समय बाहर के किसी धर्म का विरोध करना नहीं होकर मनुष्य को एक नैतिक नियम प्रदान करना था। इसीलिए अक्सर ग़ाज़ीपुर के अधिकतर बौद्ध मतावलम्बी बौद्ध धर्म की जगह धम्म ही कहते हैं।
आर. के. मुखर्जी इस बाबत कहते हैं कि यह उसका अपना बौद्ध धर्म था। शिलालेख 12 के अनुसार जाति और सप्रदाय से अलग यह एक नैतिक धर्म था, जिसमें सभी धर्मों के सार संगृहीत थे। यह उसकी मौलिक देन थी।
            इसके बाद ही तो अशोक पुन ग़ाज़ीपुर के औड़िहार, सैदपुर, भितरी, जौहरगंज, मसोनडीह, क्रेलुलेन्द्रपुरा, ग़ौसपुर, जमानियाँ आदि क्षेत्रों में भ्रमण कर बौद्ध स्मारक स्थापित कराया।
(न्)       अशोक ने यहाँ के विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा की। वह अपने राजत्व के 10वें वर्ष सम्बोधि तथा 20वें वर्ष में लुम्बिनी गया था तथा बहुत से स्थानों पर उसने बौद्ध प्रतीकों को विकसित किया। लुम्बिनी में शिला प्राकार बनवाया तथा शिला स्तंभ स्थापित कराया, क्योंकि यहाँ बुद्ध पैदा हुए थे (.सृ.त्रे. रूम्मिनदेई)
(न्ग्)     अशोक ने लघु स्तंभ प्रमुख केन्द्राW में ही गाड़ेसारनाथ, भितरी, लटिया, ग़ौसपुर (स्तंभ क्षतिग्रस्त मात्र सिंह हैं), कौशाम्बी, साँची, लुम्बिनी, निगालिवा आदि जो उसके बौद्ध धर्म के प्रति रुचि के परिचायक हैं।
(न्ग्ग्)   अशोक ने स्वीकार किया है कि गद्दी पर बैठने के 10 वर्ष के बाद वह सम्बोधि हो गया था (शि.ले. 8) रूपनाथ के शिलालेख में कहता है कि बौद्ध धर्म स्वीकार करने के ढाई वर्ष बाद तक मैं एक सामान्य उपासक रहा पर मुझमें कोई सुधार नहीं हुआ। एक वर्ष बाद जब से मैं संघ में प्रविष्ट हुआ हूँ तब से मैं धर्म के प्रति अधिक क्रियाशील हूँ।
(न्ग्ग्ग्) बौद्ध तीर्थ स्थलों पर जाकर वहाँ के तीर्थ स्थलों और प्रतीकों की पूजा की।
महावंस और दीपवंस के अनुसार अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार करके स्तूप और संघाराम बनवाया। दिव्यवदान और अशोकावदान उसके बौद्ध चरित्र को स्वीकार करते हैं। ह्वेन साँग जो ग़ाज़ीपुर जनपद में आया था, उसके अनुसार वह बौद्ध होने के कारण इसे संरक्षण प्रदान किया था। तारानाथ अशोक के बौद्ध धर्मानुयायी क्रियाओं को उजागिर करता है।
ग़ाज़ीपुर जनपद के अधिकतर ऐतिहासिक क्षेत्रों में जिन-जिन स्थानों पर मैं गया, वहाँ के मुख्य मार्गों के अलावा यहाँ की नदियों के मुख्य मुहानों पर बौद्ध कलावशेष प्राप्त हुए जो अधिकतर गाँव वासियों की खुदाई से उनके नींव से निकले पड़े थे। अशोक अपने निर्माण में जिस तरह के स्तंभों में पत्थर का प्रयोग किया करता था, उनके अनेक छोटे-बड़े टुकड़े थे। विशेष बात स्तंभों में पत्थरों को शीशे जैसे ओपदार चिकना बनवाया था। उसके स्तंभों की शैली, ओप और सुंदर घंटाकार शीर्ष इस्तेमाल हुए हैं। चुनांचे ग़ाज़ीपुर के भितरी ग्राम में उसके अनेक स्तंभ टूटे पड़े हैं। 
कई ओपदार शीशे जैसे पत्थर के टुकड़े औड़िहार, जौहरगंज, मसोन, बराह घाट, सैदपुर के गंगा तट, भितरी, शादियाबाद, बहरियाबाद, भीमापार, मखदूमपुर, दिलदारनगर, जमानियाँ, बारा, ग़ौसपुर, वीरपुर, कासिमाबाद, जहूराबाद, दुल्लहपुर आदि क्षेत्रों में टीलों पर पड़े हैं और खेतों की कोड़ाई करते समय मिलते रहते हैं। एक खास बात जिसका वर्णन यहाँ करना जरूरी है कि अशोक ने जो यहाँ निर्माण कराये, उस समय के मुख्य व्यापारी मार्गों के महत्वपूर्ण मिलन स्थलों पर अथवा नए प्रशासनिक केन्द्राW के समीप करायें क्योंकि गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित अधिकांश विशिष्ट स्थल भी पुराने उत्तरापथ पर ही थे। यहाँ के प्रमुख व्यापारी मार्गों पर एक-एक योजन (पाँच सौ मील की दूरी, इस शब्द का मूल अर्थ वह दूरी थी, जो लम्बी यात्रा के दौरान बैलों को विश्राम के लिए छोड़े बिना बैलगाड़ी द्वारा आसानी से तय की जाती थी) की दूरी पर सुव्यवस्थित रूप से छायादार कुंज, बावड़ियाँ, फूलों के बाग तथा विश्रामगृह बनाये गये थे। ये नई सुविधाएँ अशोक के अपने राज्य में ही नहीं बल्कि सीमाओं के बाहर भी जुटाई गई थीं, ज़ाहिर है कि व्यापारियों के लिए वे वरदान जैसी थीं इसलिए कि अनेक पड़ाव पर वैद्यों तथा पशु चिकित्सकों का प्रबंध था। जगह-जगह यहाँ भी मनुष्यों तथा पशुओं के लिए चिकित्सालय स्थापित किया जिनमें राज्य के खर्च पर इलाज की व्यवस्था थी।

अशोक के बाद ग़ाज़ीपुर के इतिहास में सबसे गौरवपूर्ण समय गुप्तकाल का इस माने में था कि अनेक बौद्ध स्थलों पर इन्होंने अपना वर्चस्व स्थापित किया और जो आसानी से नहीं मिला, उन्हें छीन लिया गया, ऐसा इतिहासकार मानते हैं। उस समय यह क्षेत्र बनारस के बाद कला का एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरा था। इस काल में कला को एक नई दिशा और सार्वभौम समृद्धि मिली। उसका कारणग़ाज़ीपुर गजेटियर’ (खंड 29, पृ. 152) में एच. आर. नेविल लिखता है
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बौद्ध युगीन तथा गुप्तकालीन में पाये बौद्ध अवशेषों में मुझे गांधार शैली की महक मिलती है। विशेषकर बुद्ध की प्रतिमाएँ औड़िहार, मसोनडीह, जौहरगंज तथा भितरी क्षेत्र में प्राप्त हुई हैं। इसके अलावा यहाँ के अवशेषों से भी पता चलता है कि भिक्षुओं का जीवन काफी आरामदायक था। ईंटों की बनी इमारतें हम बड़े पैमाने पर पाते हैं। जो यहाँ विहारों एवं संघारामों के अवशेष मिले, उनमें भिक्षुओं के छोटे-छोटे आवास बने थे। ईंट और पत्थर से निर्मित ये इमारतें दो मंजिलों तक थीं। खम्भों पर देवताओं की मूर्ति बनी होती थीं और छतों में खूबसूरत कलाकृतियों की कटिंग रहती थी। ऐसे भवन आज भी भितरी, सैदपुर तथा शादियाबाद में मौजूद हैं।
देखने में आया है कि गुप्तकाल के बाद ग़ाज़ीपुर की पश्चिमी एवं उत्तरी-पूर्वी भागों में नदियों के किनारों के अलावा मैदानी क्षेत्र में विशेषकर गंगा के पार जमानियाँ तथा दिलदारनगर के क्षेत्रों में अनेक नागर शैली में निर्मित मन्दिरों एवं मठों का निर्माण साधारण पैमाने पर शुरू हुआ। जब मैं उन्हें देखता हूँ तो इनका विस्मयकारी अलंकरण मन को मोह लेता है। यह वस्तुकला के उन्नत शिल्प का उदाहरण है। इन पर अत्यंत नैनाभिराम और पौराणिक देवताओं एवं कथाओं के चित्र उकेरे गये हैं। अब अधिकतर ये खण्डहर के रूप में यदा-कदा बिखरे पड़े हैं। उनमें मुख्यत दिलदारनगर के दीनदार ख़ाँ (दिलदारनगर के संस्थापक) कोट के दक्षिण-पश्चिम कोने के पास नल-दमयंती भग्नावशेष के टीले हैं। वहाँ एक तालाब रानी सरोवर है, उसके उत्तर-पूर्व विशाल खण्डहर प्रसाद (अब समतल) है। उसी के पासर्व में एक अति प्राचीन भव्य शिव मन्दिर था, जिसका उल्लेख कनिंघम, ओल्ढम के अलावा अनेक पुरातत्त्वेत्ताओं ने किया है। लेकिन अब वहाँ 1950 के बाद एक अन्य मन्दिर का निर्माण हुआ, जिसके आस-पास असंख्य खंडित-विखंडित मूर्तियों, मन्दिर के अवशेष तथा किसी बौद्ध विहार या चैत्य की निशानियाँ बिखरी पड़ी हैं।
यहाँ की कलात्मक आकृतियों का सुडौलपन और नखलिश ऐसी हैं जो किसी बड़े शहर के मन्दिरों जैसी हैं। खण्डहरों से प्राप्त मूर्तियों में अनेक भाव-मुद्राओं को चित्रित किया गया है। इन पर कामशास्त्र की कलाओं को चित्र द्वारा उकेरा गया है। अनेक प्रकार की देवी-देवताओं, अप्सराओं, सुरसुंदरियों, जानवरों तथा पक्षियों की प्रतिमाएँ बनी हैं, जिन्हें वहाँ देखा जा सकता है।