उबैदुर्रहमान
सिद्द़ीकी के बारे में
उबैदुर्रहमान
सिद्द़ीकी ग़ाज़ीपुर के विलक्षण अन्वेषी प्रतिभा तथा साहित्य-सृजन के एकमात्र कर्मठ क़लमकार हैं। उनके बारे में डॉ. विवेकी राय ने सही लिखा है कि एक सुविज्ञ इतिहासकार, हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेजी के सुधि साहित्यकार, प्राचीन पाण्डुलिपियों, हस्तलिखित अभिलेखों के संग्रहकर्ता विशेषज्ञ और भारतीय शोध संस्थानों से जुडे प्रमाणिक शोधकर्ता के रूप में पहचान है।
इसके अलावा उबैदुर्रहमान साहब के व्यक्तित्व एवं उनके साहित्यिक योगदान पर कनाडा के ओकलाहामा विश्वविद्यालय के डॉ. नौशाद अली (पी-एच.डी.), रिसर्च मेम्बर, पेग्गी एंड चार्ल्स स्टिफेंसन सेन्टर लिखते हैं–
"I feel
great honour to be among friends of Mr. Obaidur Rahman Siddiqui who is one of
the leading progressive scholar and historian in modern India. Living in a
foreign country, I admire his research work that is often posted on internet
and print media. While reading his literary works, one would eventually feel
attracted to the characters and places he crafts for the readers. More
importantly his scholarly work is highly focused on places and people of
historical importance that are generally ignored by the mainstream writers.
This rare quality of his style brings the subject into lime light in the world
arena."
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इतिहास विभाग के प्रोफेसर वसीम रज़ा, जिस तरह से उबैदुर्रहमान साहब ने दुर्लभ कृतियों, पाण्डुलिपियों, ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर पुस्तक लिखी है, वह उस पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं–
"Mr.
Obaidur Rahman Siddiqui is a well known writer and an erudite historian. He has
used all possible sources available to him or through painstaking efforts he
collected it for this theme. The utilization of the sources make this work
amazingly very rich. The list of innumerable manuscripts and archival sources
served as the testimony for this work. He traced the history of Buddhism in Ghazipur from its
foundation; it emerges as an important town with strong Buddhist influence. So
Mr. Obaid is applauded for a painstaking effort which he took and for the work
he produced. All those interested must go through such work as it is genuine
recording and reconstructing of the history of an important Indian town i.e.;
Ghazipur."
ग़ाज़ीपुर के शालीन एवं संभ्रांत परिवार में उबैदुर्रहमान का जन्म 5 जून 1964 ई. में मुहल्ला मच्छरहट्टा में हुआ। चूँकि आपका घराना सूफियों का था तथा मक्का (सउदी अरब) से सुल्तान इब्राहीम लोदी के शासनकाल में आपके वंशज शेख़ अब्दुल रज़्ज़ाक मक्की अपने धर्मगुरु मीर मौज दरयाँ से मिलने लाहौर आये और वहीं रह गये। वहाँ से उनके पुत्र शेख़ जमाल अहमद मक्की बादशाह हुमायूँ के समय में दिल्ली आकर अपने गुरु अब्दुल कुद्दूस गंगोही के सानिध्य में रहकर शिक्षा ग्रहण की। जब 1526 ई. में बादशाह हुमायूँ नसीर खाँ लूहानी की बगावत को विफल करने ग़ाज़ीपुर आया तो उसके लश्कर के साथ शेख़ जमाल भी थे। विज्योपरांत बादशाह की आज्ञा से शेख़ जमाल मुहम्मदाबाद परिहारबारी के उत्तरी तरफ जंगल में एक खानकाह का निर्माण किया और मानवता की सेवा में लग गये। मुगलकालीन दस्तावेजात में है कि बंगाल के हाकिम दाउद खाँ केरानी की बगावत को दबाने के लिए मुगल सम्राट अकबर 1573 ई. में स्वयं यूसुफपुर में आपकी खानकाह में आशीर्वाद लेकर आगे गया था। शेख़ जमाल के कहने पर हुमायूँ ने क्षेत्र का काज़ी शेख़ निज़ामुद्दीन सिराज अंसारी (अंसारी परिवार) तथा रेवन्यू आफिसर मिर्ज़ा आदिल बेग को बनाकर भेजा। 1593 ई. में क्षेत्र का नामकरण काज़ी यूसुफ अंसारी के नाम पर कस्बा यूसुफपुर, मिर्ज़ा आदिल बेग पर आदिलाबाद तथा यूसुफपुर के एक मुहल्ला का नाम शेख़ जमाल के नाम पर जमालपुर हुआ। सरकारी कागजात में आज भी यही नाम दर्ज चले आते हैं।
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साहब के परिवार के सदस्यों की शादियाँ कस्बा यूसुफपुर के अंसारियान तथा परगना शादियाबाद के गाँव सर-वली (सरौली) उर्फ पहेतिया के संभ्रांत परिवारों में हुई, जिसका उल्लेख ओल्ढ़म ने ‘मेम्वाअर्स ऑफ ग़ाज़ीपुर’ खंड प्रथम तथा ‘ग़ाज़ीपुर गजेटियर’ खंड 29 में एच. आर. नेविल ने किया है। आपके परिवार के अधिकतर लोग वकालत एवं मुंसिफी पेशा से जुड़े थे। उस समय यह पेशा बड़े आदर से देखा जाता था। आपके दादा शेख़ उस्मान के दादा शेख़ आबिद अली (वकील) के अलावा ‘ख़ान बहादुर’ शेख़ अमीनुल्ला (वकील एवं मजिस्ट्रेट), ‘ख़ान बहादुर’ शेख़ अब्दुल समद (वकील एवं मजिस्ट्रेट), शेख़ ऱफीउल्ला (वकील), शेख़ मुहम्मद अली ‘क़ारी सरौलवी’ (वकील), शेख़ ग़ुलाम जिलानी (वकील), शेख़ अज़ीजुर्रहमान (वकील), हाजी मौलवी अहद (वकील, मुंसिफ मजिस्ट्रेट), शेख़ मुहम्मद जान (वकील), शेख़ रहीमुल्ला (वकील, मुंसिफ मजिस्ट्रेट), शेख़ अबुल हसन (आई.ई.एस. डायरेक्टर ऑफ एजुकेशन मिनिस्ट्री, कश्मीर, प्रो. वाइस चांसलर, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय), शेख़ हसन अब्दुल्ला (पी-एच.डी., लंदन, सेंट जॉन कॉलेज, आगरा में प्रोफेसर तद्पश्चात कन्ट्रोलर एवं स्टेवर्ड, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय), बैरिस्टर शेख़ मुहम्मद यहैय्या (वकालत तद्पश्चात जज हाईकोर्ट ग्वालियर) आदि लोग ग़ाज़ीपुर अदालत, बनारस तथा आगरा हाईकोर्ट में वकालत पेशा से जुड़े रहे हैं।
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के परिवार के नामी वकील तथा आनरेरी मजिस्ट्रेट ग़ुलाम रज़ा साहब थे जिनके नाम पर शहर के पूर्वी क्षेत्र में रज़ागंज नाम का एक मुहल्ला अब भी है। उन्होंने उस क्षेत्र को खरीदकर आबाद किया था। उनके बारे में नेविल ‘ग़ाज़ीपुर गजेटियर’ (खंड प्रथम, पृ. 97) में लिखते हैं–
"One of
the Pahatia Sheiks was Ghulam Raza, who purchased the Ruhi Mandavi muhalla in
Ghazipur from the descendants of Shah Ruhullah, one of the first settlers in
the town."
याद रहे उस समय कोठी ‘समद मंज़िल’ शहर का दिल मानी जाती थी। यहाँ जंगे-आज़ादी के बड़े-बड़े फैसले लिये जाते थे। शेख़ अब्दुल समद तथा उनके चचा शेख़ अमीनुल्ला ग़ाज़ीपुर जनपद के प्रथम आंदोलनकारी थे, जिन्होंने अपने ‘ख़ान बहादुर’ के तमग़ों को अंग्रेजों के ज़ुल्म एवं उनके अत्याचारों से क्षुब्ध होकर 1899 में वापस कर दिया था।
सर सैयद अहमद ख़ाँ जो कि ग़ाज़ीपुर की अदालत में सब जज (1862-64) थे, उबैदुर्रहमान साहब के घर ‘समद मंज़िल’ में शेख़ अब्दुल समद साहब से ग़ाज़ीपुर में विक्टोरिया कॉलेज, साइन्टिफिक सोसायटी तथा यूरोपियन देशों की महत्वपूर्ण पुस्तकों को देशी भाषा में कैसे अनुदित या उन्हें रूपांतरित किया जाये, उसके सलाह-मशविरे के लिए आते थे। यह बात स्वयं सर सैयद ने लिखी है। सर सैयद का स्थानान्तरण अलीगढ़ जब हुआ तो वहाँ विश्वविद्यालय से पूर्व मोहम्मडन ओरियंटल कॉलेज की नींव रखी। उस समय भी उबैदुर्रहमान साहब के परिवार के लोगों ने सर सैयद की सहायता की थी। सर सैयद (अलीगढ़ इंस्टीटय़ूट गजट, 9 जून 1878) में लिखते हैं कि हाजी मौलवी अहद (वकील) ने 200 रुपए, शेख़ मुहम्मद जान (वकील) ने भी 200 रुपए की सहयोग राशि दी थी। उसके आगे वह लिखते हैं कि शेख़ अब्दुल समद ने वास्ते चहारदीवारी 25 रुपए दिया तथा मोहम्मडन एजूकेशन कांग्रेस के चौथे महासम्मेलन जो कि अलीगढ़ में दिसम्बर 1889 में हुआ, मेम्बर्स फीस 10 रुपए दिया जबकि 5 रुपए चन्दा फीस थी। सर सैयद आगे लिखते हैं कि वह ग़ाज़ीपुर के रईस, वकील अदालत, आनरेरी मजिस्ट्रेट व वाइस चेयरमैन म्यूनिसिपल बोर्ड हैं, जिनका नाम मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज अलीगढ़, अहाता की तरफ दीवार जहूर हुसैन गेट के पश्चिम तरफ पत्थर की जाली पर दर्ज है। आखिरी समय तक ये लोग कॉलेज एवं विश्वविद्यालय के मेम्बर्स बने रहे। (देखिए, अलीगढ़ इंस्टीटय़ूट गजट, 9 जून 1878 तथा मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज फंड कमेटी और उसके मेम्बरान, सर सैयद एकेडेमी, अलीगढ़, 2014)।
अब्दुल समद साहब के भतीजे एवं मशहूर वकील शेख़ अब्दुल अज़ीम साहब ने एम.ए.एच. इंटर कॉलेज की बुनियाद 1884 में एम.ए.वी. अर्थात मोहम्मडन एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल नाम से उबैदुर्रहमान साहब के घर ‘समद मंज़िल’, मच्छरहट्टा के अहाता में सूफी हज़रत हकीम अब्दुल अलीम ‘आसी ग़ाज़ीपुरी’ के हाथों रखवाई थी। उसके प्रबंधक स्वयं वकील शेख़ अब्दुल अज़ीम साहब, अध्यक्ष शेख़ मुहम्मद अली ‘क़ारी सरौलवी’ तथा मेम्बरान 15 थे। तत्कालीन अध्यापकों में पंडित बृज नारायण, अब्दुल सत्तार ख़ाँ, विलियम कोर, मौलवी हफीज़ ख़ाँ, मौलवी मुहम्मद शेख़ अहमद, शेख़ सुभान अली अंसारी आदि थे। 1909 तक कक्षा 5 तद्पश्चात 1938 तक कक्षा 8 तक पढ़ाई होती थी। 1948 में इसे हाईस्कूल की मान्यता मिली। 1938-1949 तक जो इसमें नई नियुक्तियाँ हुईं और तनख्वाह 4 रुपए से लेकर 8 रुपए तक थी, उसमें मास्टर जव्वार हसन आबिदी, श्रीकृष्णराय ‘हृदयेश’, नूरुल हसन, अतहर हुसैन ख़ाँ, तारा प्रसाद वर्मा, मुहम्मद जहीरुद्दीन अमानी आदि के अलावा प्रिंसिपल अनवार अहमद अल्वी (लखनऊ) थे। 16 जून, 1939 को यह संस्था मुस्लिम एंग्लो वर्नाकुलर एजुकेशनल सोसायटी के नाम से रजिस्टर्ड हुई थी।
एम.ए.वी. में 25 कमरे तथा डबल स्टोरी इमारत थी, जहाँ हाईस्कूल तक की पढ़ाई होती थी। 1940-41 तथा 42 में बरबरहना में ज़मीन खरीदकर वहाँ यह 1949 में स्थानान्तरित हो गया तथा अब वह एम.ए.एच. अर्थात मोहम्मडन एंग्लो हिन्दुस्तानी कॉलेज के नाम से विख्यात है। अब्दुल अज़ीम साहब के देहांतोपरांत उनके लड़के अब्दुल अलीम साहब मैनेजर तथा अध्यक्ष बैरिस्टर यहैय्या साहब हुए जो समद साहब के लड़के थे। यहैय्या साहब ग्वालियर हाईकोर्ट के जज हुए तथा अलीम साहब अपनी पी-एच.डी. हेतु 1929 ई. में जर्मनी जाने के बाद इस संस्था के मैनेजर शहर के मशहूर वकील ग़ुलाम मोहीउद्दीन साहब तथा अध्यक्ष राही मासूम रज़ा के पिता सैयद बशीर हसन आबिदी हुए। ये दोनों लोग बैरिस्टर यहैय्या साहब के सान्निध्य में रहकर वकालत की शुरुआत की थी।आज़ादी के बाद ग़ाज़ीपुर शहर के रईस एवं नगरपालिका चेयरमैन अहमद हसन ख़ाँ साहब इसके प्रबंधक नियुक्त हुए। अब इस संस्था के मैनेजर, मशहूर वकील हाजी वारिस हसन ख़ाँ साहब तथा प्रतिभाशाली प्रिंसिपल ख़ालिद अमीर साहब (अलीग) हैं जिनकी देख-रेख में यहाँ की शिक्षा निरंतर बुलंदियों को छूती जा रही है। यह गर्व की बात है कि उबैदुर्रहमान साहब ने भी इसी संस्था से कक्षा 7 से इंटरमीडिएट (1976-81) तक शिक्षा ग्रहण की है।
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के परिवार के ही प्रोफेसर अब्दुल अलीम साहब थे, जिन्होंने यहाँ के मदरसा चश्मा-ए-रहमत ओरियंटल कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की थी। शिक्षा का स्तर इतना बुलंद था, जिसके कारण वह अंग्रेजी में ड्राफ्टिंग के माहिर समझे जाते थे चुनांचा 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की जब नींव रखी गई, तो उसका बाईलाज आपने ही तैयार किया था। कुछ समय तक उसके सेक्रेटरी भी रहे। उसके प्रथम अधिवेशन में डॉ. अब्दुल अलीम साहब के अलावा मुंशी प्रेमचंद, सज्जाद ज़हीर, फ़ैज अहमद फ़ैज, क्रिशनचंद्र आदि लोग सम्मिलित हुए थे। 1929 में जब अलीम साहब अपनी पी-एच.डी. हेतु बर्लिन, जर्मनी पहुँचे, वहाँ अध्ययनरत डॉ. राममनोहर लोहिया से उनकी मुलाकात हुई। उस समय वहाँ भारतीय इंकलाबियों का एक संगठन ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ सेंट्रल यूरोप’ के नाम से सक्रिय था जिसके सिक्रेटरी डॉ. लोहिया थे। उस संगठन के अध्यक्ष अब्दुल अलीम साहब चुने गये थे। डॉ. अलीम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति (1968-1974) भी रह चुके हैं।
ऐसे प्रतिष्ठित और ख्यातिलब्ध परिवार में उबैदुर्रहमान साहब ने आँखें खोलीं और उनकी परवरिश हुई और अपने साहित्य-लेखन को आगे बढ़ाया। चुनांचा दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर प्रोफेसर मोनिस रज़ा ने उबैदुर्रहमान साहब के व्यक्तित्व और उनकी साहित्यिक उपलब्धियों पर सही कहा था कि– ‘उबैदुर्रहमान इस समय ग़ाज़ीपुर के इतिहास तथा साहित्य के अहम शोधार्थी के रूप में एक अहम शख़्सियत के रूप में उभर कर सामने आये हैं। आपने वहाँ के इतिहास को भाषा और भाषा को इतिहास दिया है। उन्हें प्राचीन इतिहास के बौद्धयुगीन तथा गुप्तकालीन असंख्य और घटनाक्रम कंठस्थ हैं, सुनकर ताअज्जुब होता है।’
यह कम लोगों को मालूम है कि उबैदुर्रहमान अपने छात्र जीवन 1984 से लिखते चले आ रहे हैं। समाजवादी चिन्तक, मशहूर समालोचक एवं लेखक डॉ. पी. एन. सिंह ने बड़ा सटीक लिखा कि– ‘उबैदुर्रहमान साहब शहर के अकादमिक पहचान वाले आदमी हैं। आश्चर्य होता है यह देखकर इनकी अपनी पहली टिप्पणी ‘लीडर लेस इंडिया’ 23 नवम्बर 1984 को नार्दन इंडियन पत्रिका में छपी, जब उनकी उम्र लगभग 20 वर्ष की थी। इसमें ये लगातार लिखते रहे हैं और इन्होंने इस पत्र में कुल 82 टिप्पणियाँ और छोटे-बड़े लेख लिखे..... इसका मतलब यह है कि राही मासूम रज़ा की 1992 में मृत्यु से पूर्व उबैदुर्रहमान इतना कुछ लिख चुके थे जिनकी संख्या तकरीबन 350 के आस-पास थी।’
आप ऐसी प्रतिभावान शख़्सियत हैं कि आपके साहित्यिक एवं ऐतिहासिक योगदान पर भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के फरोग़ उर्दू काउंसिल के तहत 2014 ई. में एक यादगार सेमिनार आयोजित किया गया था। उसमें जनपद के अलावा बाहर से मशहूर विद्वान, चिन्तक तथा लेखक आये थे, जिनमें प्रमुख प्रोफेसर तारिक मुहम्मद सिद्दीकी साहब (भूतपूर्व उपकुलपति, हमदर्द विश्वविद्यालय, दिल्ली), इंजीनियर मकबूल अकरम साहब (अलीगढ़), डॉ. जितेन्द्रनाथ पाठक साहब (भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी, पी. जी. कॉलेज), डॉ. पी. एन. सिंह साहब (भूतपूर्व विभागाध्यक्ष अंग्रेजी, पी. जी. कॉलेज), डॉ. समर बहादुर सिंह (विभागाध्यक्ष, इतिहास, पी. जी. कॉलेज), डॉ. उबैदा बेगम साहिबा (विभागाध्यक्ष, उर्दू, स्वामी सहजानन्द डिग्री कॉलेज, ग़ाज़ीपुर), डॉ. अनीसुर्रहमान (एसोसिएट फ्रोफेसर, इन्टेगरल विश्वविद्यालय, लखनऊ) डॉ. ऋचा राय साहिबा (हिन्दी विभागाध्यक्ष, गदाधर श्लोक महाविद्यालय, रेवतीपुर, ग़ाज़ीपुर), शेख़ जैनुल आब्दीन साहब, ख़ुर्शीद अहमद साहब (भूतपूर्व एम.एल.ए.), रईस शहीदी साहब आदि थे, जिन्होंने अपने विचार रखे थे।
देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में अब तक आपके लगभग बारह सौ (1200) लेख, टिप्पणियाँ, समीक्षाएँ, पत्र एवं शोध-पत्र छप चुके हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में ग़ाज़ीपुर के इतिहास तथा मुस्लिम स़ूफी संतों (1026-1930 ई.) पर 2000 ई. में तज़करा-ए-मशाएख-ए-ग़ाज़ीपुर तथा ग़ाज़ीपुर के फारसी तथा उर्दू साहित्य पर 2006 ई. में ग़ाज़ीपुर का अदबी पसमंजर है। इस पुस्तक का विमोचन भारत के उपराष्ट्रपति माननीय हामिद अंसारी साहब के हाथों उपराष्ट्रपति हॉल में हुआ।
इनके अलावा उबैदुर्रहमान के नेतृत्व में बहैसियत संपादक श्रीमती सईदा फ़ैज (संस्थापिका, शाह फैज पब्लिक स्कूल) के जीवन और उनकी उपलब्धियों पर "Saeeda Faiz -- An Inspiration" 2010 में संकलित की गयी थी। जो तीन भाषाओं में है। आपकी ग़ाज़ीपुर के नामकरण पर ग़ाज़ीपुर बनाम गाधिपुरी—एक अवलोकन पुस्तिका 2015 में प्रकाशित हुई है।
आप आकाशवाणी इलाहाबाद तथा वाराणसी से 1985 से अब तक लगभग 100 वार्ताएँ, विशेष फीचर्स, परिचर्चाएँ, बच्चों के कार्यक्रम, युववाणी, एवं साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेते आ रहे हैं। आपके व्यक्तित्व तथा साहित्यिक यात्रा पर दूरदर्शन दिल्ली तथा ई.टी.वी. उर्दू, हैदराबाद तथा उ.प्र. से डाक्यूमेन्टरी प्रसारित हो चुकी है–
1. ई.टी.वी. उर्दू हैदराबाद, 2008 – ‘उबैदुर्रहमान
सिद्द़ीकी अपने तह़क़ीक के आइने में’
2. ई.टी.वी. उर्दू हैदराबाद, 2010 – ‘उबैदुर्रहमान
सिद्द़ीकी की तख़ल़ीकात और फ़न’
3. दिल्ली दूरदर्शन उर्दू, 2013 – ‘उबैदुर्रहमान सिद्द़ीकी का ग़ाज़ीपुर पर शोधकार्य’
4. दिल्ली दूरदर्शन उर्दू, 2013 – डॉ. राही मासूम रज़ा के व्यक्तित्व पर संवाद लेखन में सहयोग’
5. सूचना एवं प्रसारण विभाग शाह़फैज पब्लिक स्कूल, गाज़ीपुर, 2010 ‘सईदा फ़ैज़ की जीवन गाथा’ पर संवाद लेखन
6. सूचना एवं प्रसारण विभाग शाह़फैज पब्लिक स्कूल, ग़ाज़ीपुर 2014 ‘न जाने तुम कहाँ चले गये’ पर संवाद लेखन।
सम्मान :
1. तहरीक मसावात अवार्ड, 2002 : ग़ाज़ीपुर
2. ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी अवार्ड, 2005 : ख़ामोश अकादमी, यूस़ुफपुर
3. व्यक्तित्व सम्मान अवार्ड, 2006 : ह्यूमन वेलफेयर एंड कल्चरल सोसायटी, यूस़ुफपुर, ग़ाज़ीपुर
4. अलमुअम्मल अवार्ड, 2007 : अलमुअम्मल शोध संस्थान, लखनऊ
5. ग़ालिब अवार्ड, 2007 : अबु अलसीना शोध संस्थान, दिल्ली
6. मौलवी रहमतुल्ला अवार्ड, 2013 : चश्मा-ए-रहमत ओरियंटल कॉलेज, ग़ाज़ीपुर
7. रसखान अवार्ड, 2013 : डॉ. राही मासूम रज़ा संस्थान, ग़ाज़ीपुर
8. हज़रत आसी अवार्ड, 2013 : बज़्मे आसी सोसायटी, ग़ाज़ीपुर
9. ग़ाज़ीपुर रत्न, 2014 : पूर्वांचल विकास संस्थान, ग़ाज़ीपुर
10. अज़ीज़ ग़ाज़ीपुरी अवार्ड, 2014 : महबूब अकादमी, यूस़ुफपुर, ग़ाज़ीपुर